Sunday, 27 December 2015

संवेदनाएं यूं ही नहीं मरतीं !

जीवन में संवेदनाओं का बडा ही महत्व है। स्वयं की संवेदनाओं को मारकर दूसरों के दुख में संवेदना व्यक्त करना ही क्या मानवता की श्रेणी में आता है? परस्पर वैमनस्य होने पर भी; सुख नहीं तो दुख में ही सही परन्तु, विरोधी संवेदना व्यक्त करने आ ही जाते हैं। यह परिपाटी अनादि काल से भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग है।
एक पिता अपने पुत्र के वियोग में ,एक पति अपनी पत्नी से बिछड कर यदि दुखी है तो वह अपनी संवेदना किसके समक्ष व्यक्त करे। स्वार्थी समाज के बनावटी रिश्ते जीवन में विष घोलकर परिवार की व्यवस्थाओं को डांवाडोल कर देते हैं। झूठ ,अविश्वास एवं अनुचित हस्तक्षेप के दंश जीवन की नैया को मजधार में पानी के थपेड़ों संग संघर्ष करने को बाध्य कर देते हैं। और यही संघर्ष जीवन को नकारात्मक अथवा सकारात्मक दृष्टि देते हैं। जीवन एक बहुत बडा अनुभव है। इसके प्रत्येक क्षण में संवेदनशीलता हैं। मनुष्य जीवन बडे सौभाग्य से प्राप्त हुआ है । जो कि समाज की उन व्यवस्थाओं  को स्वीकारने को बाध्य है जिनसे हम संस्कारित हैं। संवेदनाएं प्रकट करने से यदि हृदय का भार कम होता है तो अवश्य करें।मुझे अपनी संवेदनाओं की अभिव्यक्ति में असहजता की अनुभूति होती है।अपनी संवेदनाओं के प्रति मेरा असहिष्णु भाव सदा से मेरा मित्र रहा है और नियति भी। अब प्रश्न यह है कि अव्यक्त संवेदनाओं को किस श्रेणी में रखा जाए?

[लेखक के स्वयं के विचार हैं]


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