Wednesday, 26 May 2021

वायरस युद्ध के काल में बुद्ध की प्रासंगिकता -डॉ. पुनीत कुमार द्विवेदी

                                 वायरस युद्ध के काल में बुद्ध की प्रासंगिकता -डॉ. पुनीत कुमार द्विवेदी 


- बुद्ध का प्रभाव चीन-जापान-कोरिया-नेपाल-थाईलैण्ड-तिब्बत-श्री लंका आदि  देशों में भी पर्याप्त रहा है। 

-बुद्ध की सीख को नज़रअंदाज़ किया है वर्तमान विश्व ने।

- ये वायरस जनित युद्ध ‘बुद्ध की शिक्षाओं’ पर कुठाराघात है। 

- ‘बुद्धं शरणम् गच्छामि’ का भाव वर्तमान समाज में अदृश्य हो गया है।

- अहिंसा, विश्व प्रेम एवं बंधुत्व-भाव का हो रहा है लोप।

- पाश्चात्य शैली ने समाज का नाश करने की ठान ली है। 


‘बुद्धं शरणम् गच्छामि’ कहते, सुनते या पढ़ते ही मन अपार शांति की अनुभूति करने लगता है। बुद्ध का ध्यान करने मात्र से ही पंचभूतों से बने इस शरीर में अपार शांति एवं सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह होने लगता है। महात्मा बुद्ध ने अपने अंतर में इंद्रिय निग्रह के द्वारा परम् शांति की स्थापना की थी। विश्व शांति, प्रेम एवं करुणा की अप्रतिम मूर्ति माने जाते हैं महात्मा बुद्ध। विभिन्न देशों में अनवरत अथक यात्राओं के माध्यम से शांति, प्रेम एवं करूणा के संदेश से जगत को तृप्त करने का अद्भुत प्रयास करने वाले भगवान बुद्ध आज भी और सदा पूजनीय एवं प्रासंगिक रहेंगे। 


शांति प्रेम और करुणा ही जीवन के सार है। गौतम बुद्ध ने शांति की खोज में निरंतर भ्रमण एवं यात्रायें कीं। प्रेम के मर्म को जन-जन तक पहुँचाने का यत्न किया। असहायों, पशु-पक्षियों, निराश्रितों के लिये करुणा भाव को धरे विचलित हुये परंतु शांत रहे। जीवन की नश्वरता को जान चुके थे बुद्ध। एक ऐसा ठहराव उनके जीवन में आ चुका था जो स्वयं में परमेश्वर की अनुभूति करने जैसा था। उन्होंने अंगुलीमाल जैसे नृशंस हत्यारे डाकू को भी ठहराव प्रदान किया था। उनके शब्द ‘मैं तो ठहर गया तू कब ठहरेगा’ ने अंगुलीमाल सरीखे कईयों का कल्याण किया है। 


वर्तमान वायरस युद्ध काल में भी बुद्ध उतने ही प्रासंगिक हैं। हम बुद्ध के रूप को मानते हैं उनकी शिक्षाओं को नहीं। जबकि, बुद्ध ने राग, रूप, यौवन,विलासिता, राजसुख आदि का त्याग कर बुद्धत्व को प्राप्त किया था। बुद्ध की शिक्षाओं वाली करूणा अब दूर-दूर तक नहीं दीखती। बुद्ध की शिक्षाओं वाली शांति अपने अस्तित्व को ढूँढती अलाप कर रही है। बुद्ध की शिक्षाओं वाले प्रेम एवं बंधुत्व ने अब गलाकाट प्रतियोगिता का स्वरूप ले लिया है। समूचा विश्व वायरस से त्रस्त है। सबके मन एवं मस्तिष्क एक अज्ञात भय से भयभीत हैं। क्या बुद्ध अब युद्ध बन चुके हैं? विचारणीय अब यह है कि अब हम कौन हैं? हम किससे ग्रसित हैं? मानसिक वायरस से या शारीरिक वायरस से? क्या यह मंत्र आज भी उतना ही प्रासंगिक है ‘बुद्धं शरणं गच्छामि’ ।


भय-लोभ अंधकार हैं जिनसे उबरना ही बुद्ध तत्व को प्राप्त करना है। प्रेम-करूणा एवं विश्व बंधुत्व ही समाज के विकास के लिये एवं सृष्टि के लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये आवश्यक है। बाक़ी सब कुछ नश्वर है। इस बुद्ध भाव का बोध प्राणी को मनुष्य से परमेश्वर बनाता है। मन-बुद्धि-विवेक को परम् वैभव तक पहुँचाता है। यही बोधि तत्व है और यही बोधिसत्व है। 


✍️ डॉ. पुनीत कुमार द्विवेदी, मॉडर्न ग्रुप ऑफ़ इंस्टीट्यूशन्स, इंदौर में प्रोफ़ेसर एवं समूह निदेशक की भूमिका में कार्यरत हैं।)

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