भोगवादिता ने मानव संवेदनाओं की हत्या कर दी है- डॉ. पुनीत द्विवेदी
- सेवाभाव का अभाव अस्पताल बने व्यापार के अड्डे।
- मानवता को शर्मसार कर तार-तार करती घटनाओं से भरे पड़े हैं समाचार पत्र।
- लाशों के व्यापार से आहत भारतीय समाज।
- असहायों से अनैतिक रूप से ऐंठे जा रहे हैं रूपये।
भारतीय संस्कृति सभी छोटे-बड़े मत-संप्रदायों को अपने में समाहित कर उनका पालन-पोषण एवं संवर्द्धन करती आयी है। वसुधैव कुटुम्बकम् का भाव रखने वाला यह देश कब भोगवादी विचारों की ओर अग्रसर हो गया यह पता ही नहीं चला। वर्तमान समाज में “वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिये मरे” का भाव लुप्त होता जा रहा है और ‘वही पशु प्रवृत्ति है जो आप-आप ही चरे’ का भाव पूरे चरमोत्कर्ष पर पहुँच गया है। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मानव रूपी दानवों के बीच में रह रहे हैं हम लोग। विडंबना है कि भारत से चील-गिद्धों की जो प्रजाति विलुप्त होती जा रही है वो अब मानव शरीर में अपने उन्हीं संस्कारों के साथ अवतरित होने लगी है।
कोरोना महामारी के इस संकटकाल में मनुष्य रूपी यह नरभक्षी गिद्ध-चील-कौवों की फ़ौज अपने स्वार्थ सिद्धि में लगी हुयी है। भारत की संस्कृति में कभी लाशों की व्यापार प्रचलित नहीं रहा है। परंतु आज के इस परिप्रेक्ष्य में प्रत्येक अस्पताल से लेकर मुक्तिधाम तक लोलुप भोगवादिता ने लाश पर पैसे कमा लेने का जो व्यापार शुरु किया है, वह अत्यंत पीड़ादायक है। इस मेडिकल आपातकाल के दौर में अस्पताल में बेड दिलाने से लेकर दवा-इंजेक्शन, आक्सीजन, एंबुलेंस एवं शववाहन आदि की कालाबाज़ारी ने मानवता को शर्मसार किया है। दिल्ली एम्स का चिकित्सक रेमडेशिवेर इंजेक्शन की कालाबाज़ारी करता हुआ धरा गया। इससे पहले भी लगभग रोज़ किसी ना किसी हेल्थकेयर से जुड़े व्यक्ति का नाम किसी ना किसी अपमानजनक कालाबाज़ारी के कृत्य से जुड़ा आ ही रहा है। समाचार पत्र, न्यूज़ चैनल चीख-चीख कर बता रहे हैं।
मनुष्य का दैत्य स्वरूप अब दीखने लगा है। अब यह आभास होने लगा है कि पैसा कुछ भी करा सकता है। किसी की जान का सौदा भी, और किसी की लाश का सौदा भी। मरघट तक पहुँचाने वाले शववाहन, दाह करने वाले संस्कारी भी मुख्य रूप से लाशों के व्यापार में लग गये हैं। अस्पतालों की लूट ने धरती पर देवता के स्वरूप माने जाने वाले ‘चिकित्सकों’ की भूमिका पर प्रश्नचिह्व लगा दिया है।
आवश्यकता है, एक ऐसे क़ानून की जो सजा दिला सक पाये ऐसे कुकृत्यों में लिप्त सफ़ेदपोश चीलों को। ताकि किसी असहाय की मजबूरी का फ़ायदा कोई चालबाज़ ना उठा पाये।आवश्यकता है उस नैतिक शिक्षा का, जो जीवों पर दया करने का पाठ पढ़ाया करती थी। सहकारिता के भाव को जगाती थी। सब कुछ व्यापार ही नहीं होता है कुछ प्यार भी और व्यवहार भी होता है। लाशों के साथ यह व्यापार मनुष्यत्व को कठघरे में खड़ा कर रही है। अरे गिद्धों ! कुछ तो सेवा का भाव रखो। भगवान तुम्हें कभी माफ़ नहीं करेगा।
[ ✍️ डॉ.पुनीत कुमार द्विवेदी (शिक्षाविद) मॉडर्न ग्रुप ऑफ़ इंस्टीट्यूट्स इंदौर में प्रोफ़ेसर एवं समूह निदेशक की भूमिका में कार्यरत हैं।]
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