महामारी प्रबंधन हित अनवरत प्रयास वर्तमान समय की माँग- डॉ० पुनीत द्विवेदी
• महामारी प्रबंधन विषय के रूप में पढ़ाया जाये।
• लगभग 100 वर्षों में महामारी का आगमन होता है जो विनाशक होता है।
• स्वास्थ्य संबंधी सुविधाओं को मज़बूत बनाने का लक्ष्य साधना आवश्यक।
प्रबंधन व्यवस्थित जीवन का एक बड़ा ही महत्वपूर्ण अंग है। शारीरिक संरचना के प्रबंधन से लेकर जीवन की दिनचर्या तक सब-कुछ प्रबंधन पर ही निर्भर करता है। देखा गया है कि आपदा प्रबंधन पर सरकार का ध्यान रहता है परंतु महामारी प्रबंधन पर कोई महत्वपूर्ण ज़ोर नहीं दिया गया है और इसे आपदा प्रबंधन का ही हिस्सा मान लिया गया है। जबकि महामारी प्रबंधन एक अनवरत प्रयास के रूप में अपेक्षित है।
ज्ञातव्य है कि महामारी एक निश्चित अंतराल पर प्रकट होती है और कुछ वर्षों तक जिसका प्रभाव देखने को मिलता है। व्यवस्था यह होनी चाहिये कि अध्ययन करके, जैसे मौसम का पूर्वानुमान लगाया जाता है; ठीक वैसे ही महामारी के पूर्वानुमान से संबंधित शोध एवं रणनीति पर काम करना चाहिये। मूलतः महामारी स्वास्थ्य से संबंधित होती है। अत: स्वास्थ्य सुविधाओं पर समुचित राशि व्यय कर स्वास्थ्य संबंधी आधारभूत सुविधाओं को मज़बूत बनाने का लक्ष्य रखा जाना चाहिये। जिससे कि संक्रमण पर रोक लगाकर होने वाली मृत्यु की संख्या को कम किया जा सके जिससे अस्थिरता का वातावरण अथवा मेडिकल इमरजेंसी जैसे हालात ना बनें।
अध्ययन के द्वारा पूर्व की कुछ बड़ी महामारियों ने देश-विदेश और समाज पर जो प्रभाव डाला है वह दृष्टांत के रूप में रणनीति बनाने में सहायक सिद्ध हो सकती है। महामारी का यदि इतिहास देखें तो यह देखा गया है कि दुनिया में हर 100 साल पर 'महामारी' का प्रकोप हुआ है। वर्ष 1720 में दुनिया में द ग्रेट प्लेग ऑफ़ मार्सेल फैला था।जिसमें लगभग 1 लाख लोग काल के गाल में समाहित हो गये थे। पुन: 100 वर्ष बाद सन् 1820 में एशियाई देशों में हैजा का प्रकोप रहा। इस महामारी में भी लगभग एक लाख से ज़्यादा लोगों की मौत हो गई थी। इसी क्रम में सन् 1918 से 1920 में दुनिया ने स्पेनिश फ्लू के क़हर को झेला। इस बीमारी ने उस समय लगभग 5 करोड़ लोगों को मौत की नींद सुला दिया था। और अब फिर 100 साल बाद दुनिया पर आई कोरोना की तबाही, जिसकी वजह से लगभग पूरी दुनिया में लॉक डाउन है और वर्ष 2020-21 में हम इसके दुष्परिणाम देख रहे हैं। अर्थात् 100 वर्षों में एक बार महामारी का आना लगभग तय है और इसके अनुरूप रणनीति बनाना वर्तमान एवं आगामी सरकारों का कर्तव्य है।
ध्यान रहे, मानव संसाधन सबसे बड़ी पूँजी है। भारत की बड़ी जनसंख्या भारत पर भार नहीं एक अवसर प्रदान करती है। मानव संसाधन का सही उपयोग राष्ट्र पुनर्निर्माण के लिये अत्यावश्यक है। अकुशल प्रबंधन के चलते देश की नींव कमजोर हो रही है जिसपर देश का भविष्य टिका हुआ है। आवश्यकता है वैचारिक आन्दोलनों का। जो विकास के मार्ग को प्रशस्त करे ना कि विकास में बाधक बनें। समाज के सभी वर्गों का एकजुट होकर राष्ट्र पुनर्निर्माण के कार्य में स्वयं को लगाने का लक्ष्य होना चाहिये। महामारी के समय, महामारी के पश्चात बिगड़े आर्थिक हालात को सुधारने का ज़िम्मा मात्र सरकारों का नहीं अपितु समस्त नागरिकों का भी है।
‘उत्पत्ति के साथ नाश और विकास के साथ ह्रास’ प्रकृति का नियम है। प्राकृतिक संसाधनों का अविवेक पूर्ण विदोहन भी महामारी को न्योता देता है। अत: औद्योगीकरण के साथ-साथ पर्यावरण संरक्षण का भाव भी मन में रहे। पंचभूतों के संरक्षण से ही मानव सभ्यता और प्राणी मात्र का कल्याण संभव है। हम नहीं कर पा रहे हैं अत: प्रकृति को स्वयं बैलेंस करना पड़ रहा है, जो भयावह है और इसके कारक हम स्वयं ही हैं।
(लेखक डॉ. पुनीत कुमार द्विवेदी मॉडर्न ग्रुप ऑफ़ इंस्टीट्यूट्स, इंदौर में प्रोफ़ेसर एवं समूह निदेशक के रूप में कार्यरत हैं)
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