Tuesday, 17 November 2015

कृतज्ञता



श्री अरिहंत कृपा हुयी बना ये सुंदर योग।
नेमनाथ जी ने किया परहित आत्म प्रयोग।।

मुनिश्री-साध्वी-साधिका-प्रभु आचार्य समान।
इनके त्याग प्रताप में तीर्थंकर भगवान।।

वाणी श्री आचार्य की अद्भुत हैं उद्गार।
हम सबका करवा दिया निज से साक्षात्कार।।

देह-विदेह के मर्म को प्रभु ने दिया बताय।
अन्तर्मन में शान्ति का दीपक दिया जलाय।।

जीव-जन्तुओं पर दया आत्मा नहीं अनेक।
छोटी-बडी ना गीली-सूखी आत्मध्यान कर देख।।

मन-काया और वचन से उत्तम हो व्यवहार।
सोच नहीं निकृष्ट हो ना संकीर्ण विचार।।

क्षमा-दया-तप-त्याग ही जीवन का आधार।
जिनवाणी मां कह रही सम्यक हो आचार।।

ध्यान योग ही कर्म है निज का हो आभास।
तन-आत्मा में फर्क ही उत्तम व्यक्ति विकास।।

भोग-विलासी वृत्ति ही बाधक है तू भाग।
महावीर की साधना मौन- ध्यान तू साध।।

धन्यवाद आचार्य को साध्वी-मुनि आराध्य।
कृपा आप सब की रही लिख पाया यह काव्य।

श्री नेमनाथ' की प्रेरणा डेविश जी के साथ।
यह प्रेस्टीज समूह भी जोडे दोनों हाथ।।

-डॉ.पुनीत द्विवेदी (स्वरचित)
  7869723847

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