Friday, 27 January 2017

राष्ट्रहित में राजनीति हो।

बदलता राजनीतिक  परिदृश्य यह विचार करने को बाध्य कर रहा हैं कि वास्तव में क्या उचित है? राजनीतिक लाभ के लिए देश को दॉव पर लगाना अथवा देशहित में राजनीति कर परम् वैभव को प्राप्त करना। धर्म- संकट तब आता है जब राष्ट्रीय हित पर  व्यक्तिगत स्वार्थ  भारी पड़ जाता है। राष्ट्र की विडंबना है कि लोकतंत्र का मॉडल विवादास्पद लगता है। बाहुबल तथा अन्य कुप्रभाओं के चलते राजनीतिक समीकरण बदल दिए जातें हैं बिना इसकी कोई चिंता किए कि  राष्ट्रहित में क्या अत्यावश्यक है। चुनाव के समय जनता को लुभाने, लालच देने का अनैतिक प्रयास प्रारंभ हो जाना नैचुरल हो गया है। मतदाता भी स्वयं के स्वाभिमान को दॉव पर लगा देने को तत्पर दिखते है। निश्चित ही नोटबंदी का निर्णय  इस कुप्रथा पर कुठाराघात करेगी और चुनाव नीतिगत तरीक़े से सम्पन्न होंगे।

"ये पब्लिक है सब जानती है" यह  तथ्य इस चुनाव में  " इति सिद्धम" हो जाएगा, ऐसी बयार चल रही है। पब्लिक ये भी जानती है कि भारत भाग्य विधाता कौन है?  विगत  ६०-६५ वर्षों से भारत वर्ष अपने लोगों द्वारा निर्मित जटिल बंधनों में बँधा उन्मुक्त होने को  तरस रहा है। सामाजिक  एवं आर्थिक स्वतंत्रता के स्तर पर भारत सदा से उपेक्षित रहा है। अब समय आया है कि राष्ट्र की गुडविल (साख) बढ़ाई जाए। देश की साख बढ़ने से विदेशी प्रत्यक्ष निवेश भारत की ओर आकर्षित होगा। विकास का चक्र तेज़ी से चलेगा। रोज़गार के नए अवसर सृजित होंगे। जीवन स्तर सुधरेगा। पुन: विश्वगुरु भारत की स्थापना हो सक पाएगी।

अत: राजनीति राष्ट्रहित के लिए आवश्यक है। राष्ट्रहित से ही  समाज अथवा व्यक्तिगत हित संभव है। आर्थिक दूरदृष्टि तथा कूटनीति वे पहलू हैं जो वैश्विक समुदाय को विश्वगुरु भारत के समक्ष नतमस्तक कर सकते हैं। आवश्यकता है राष्ट्रहित में विशुद्ध राजनीति की। निश्चित ही अच्छे दिन आएँगें।

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